गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
धन्ना जाट
भगवान्की भक्ति सभी जातियोंके सभी मनुष्य कर सकते हैं, जिसकी चित्त-वृत्तिरूपी सरिताका प्रवाह भगवत्-रूपी परमानन्दके महासागरकी ओर बहने लगे, वही भक्तिका अधिकारी है और उसीपर भक्तभावन भगवान् प्रसन्न होते हैं।
भक्त धन्नाजी जाट थे, उन्होंने विद्याध्ययन नहीं किया था, शास्त्रोंका श्रवण भी वे नहीं कर सके थे; परंतु उनका सरल हृदय अनुरागसे भरा था। जगत्में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं, जिसके हृदयमें प्रेमका बीज न हो, अभाव है उसपर संत-समागमरूपी सुधाधाराके सिञ्चनका, इसी कारणसे उस बीजमें अंकुर उत्पन्न नहीं होता और यदि कहीं उत्पन्न होता है तो वह प्रतिकूल वातावरणके कारण वृद्धिको प्राप्त होकर पल्लवित, पुष्पित और फलित होकर जगत्को सुख पहुँचानेके बहुत पहले ही नष्ट हो जाता है। सत्सङ्गसुधासे सदा सिञ्चन होता रहे, भगवन्नामरूपी अनुकूल वायु हो और दृढ़ श्रद्धा-विश्वासरूपी छायासे सुरक्षित हो तो एक दिन वह विशाल अमरवृक्ष बनकर अखिल विश्वको अपनी सुगन्धसे और मधुर ‘अमियमय' फलोंसे सुखी एवं परितृप्त कर सकता है।
भक्तवर धन्नाजीका प्रेमबीज बहुत छोटी अवस्थामें ही संतसुधा-समागमसे जीवनी-शक्ति प्राप्त कर चुका था। धन्नाजीके पिता खेतीका काम करते थे, पढ़े-लिखे न होनेपर भी उनका हृदय सरल और श्रद्धा-सम्पन्न था। वे सदा अपनी शक्तिके अनुसार संत, भक्तों, महात्माओंकी सेवा किया करते थे। उस समय न तो आजकलकी भाँति अतिरिक्त बुद्धिवादके रोगका प्रचार था और न भण्डतपस्वियोंका ही भारत-भूमिपर विशेष भार था। इससे सरलतापूर्वक साधु-सेवा होनेमें कोई विशेष बाधा नहीं थी। धन्नाजीके पिताके यहाँ भी समय-समयपर अच्छे-अच्छे संत-महात्मा आया करते थे।
धन्नाजीकी उम्र उस समय पाँच सालकी थी, एक दिन एक भगवद्भक्त साधु ब्राह्मण उनके घर पधारे। ब्राह्मणने अपने हाथों कुएँसे जल निकालकर स्नान किया, तदनन्तर सन्ध्या-वन्दनादि नित्यक्रिया करनेके बाद झोलीमेंसे भगवान् श्रीशालग्रामजीकी मूर्ति निकालकर उसे स्नान कराया और तुलसी, चन्दन, धूप, दीपादिसे उसकी पूजा कर उसके प्रसाद लगाकर स्वयं भोजन किया। धन्नाजी उस भक्तिनिष्ठ ब्राह्मणकी सब क्रियाएँ कौतुकसे देख रहे थे। बालकका सरल स्वभाव था, कुछ देर साधु-सङ्ग हुआ, धन्नाके मनमें भी इच्छा उत्पन्न हुई कि यदि मेरे पास भगवान्की मूर्ति हो तो मैं भी इसी तरह उसकी पूजा करूं। बालक जैसी बात देखते हैं वैसा ही वे करना भी चाहते हैं। धन्नाने भी सरल हृदयकी स्वाभाविक ही मन प्रसन्न करनेवाली मीठी वाणीसे ब्राह्मणदेवके पास जाकर कहा‘पण्डितजी! तुम्हारे पास जैसी भगवान्की मूर्ति है, वैसी एक मूर्ति मुझे दो तो मैं भी तुम्हारी ही तरह पूजा करूं।'
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